पापांकुशा एकादशी साधना
Jai Gurudev Jai Gurudev
प्रत्येक जीव विभिन्न योनियों से होता
हुआ निरन्तर गतिशील रहता है। हालांकि उसका बाहरी चोला बार-बार
बदलता रहता है, परन्तु उसके अन्दर निवास करने वाली आत्मा शाश्वत
है, वह मरती नहीं है, अपितु भिन्न-भिन्न शरीरों को धारण कर आगे के
जीवन क्रम की ओर गतिशील रहती है।
जो कार्य जीव द्वारा अपनी देह में होता है, उसे कर्म कहते है और
उसके सामान्यतः दो भेद हैं- शुभ कर्म यानि कि पुण्य तथा अशुभ कर्म
अर्थात् पाप। शुभ कर्म या पुण्य वह होता है, जिसमें हम किसी को
सुख देते हैं, किसी की भलाई करते हैं और अशुभ कर्म वह होता है,
जिसमें हमारे द्वारा किसी को दुःख प्राप्त होता है, जिसमें हमारे
द्वारा किसी को संताप पहुँचता है।
मानव योनि ही एक ऐसी योनि है, जिसमें वह अन्य कर्मों को संचित
करता रहता है। पशु आदि तो बस पूर्व कर्मों के अनुसार जन्म ले कर
ही चलते रहते है, वे यह नहीं सोचते कि यह कार्य मैं कर रहा हूँ या
मैं इसको मार रहा हूँ अतः उनके पूर्व कर्म तो क्षय होते रहते हैं,
परन्तु नवीन कर्मों का निर्माण नहीं होता, जबकि मनुष्य हर बात में
मैं को ही सर्वोच्चता प्रदान करता है— और चूंकि वह प्रत्येक कार्य
का श्रेय खुद लेना चाहता है, अतः उसका परिणाम भी उसे ही भुगतना
पड़ता है।
मनुष्य जीवन और कर्म
मनुष्य जीवन में कर्म को शास्त्रीय पद्धति में तीन भागों में
बांटा गया है-
1 संचित
2 प्रारब्ध
3 आगामी (क्रियमाण)
संचित कर्म वे होते हैं जो जीव ने अपने समस्त दैहिक आयु के
द्वारा अर्जित किये हैं और जो वह अभी भी करता जा रहा है।
प्रारब्ध का अर्थ है, जिन कर्मों का फल अभी गतिशील है, उसे
वर्तमान में भोगा जा रहा है।
आगामी का अर्थ है, वे कर्म, जिनका फल अभी आना शेष है।
इन तीन कर्मों के अधीन मनुष्य अपना जीवन जीता रहता है। प्रकृति के
द्वारा ऐसी व्यवस्था तो रहती है कि उसके पूर्व कर्म संचित रहें,
परन्तु दुर्भाग्य यह है कि मनुष्य को उसके नवीन कर्म भी भोगने ही
पड़ते हैं, फलस्वरूप उसे अनन्त जन्म लेने पड़ते हैं। परन्तु यह तो
एक बहुत ही लम्बी प्रक्रिया है और इसमें तो अनेक जन्मों तक भटकते
रहना पड़ता है।
परन्तु एक तरीका है जिससे व्यक्ति अपने छल, दोष, पाप को समूल नष्ट
कर सकता है, नष्ट ही नहीं कर सकता, अपितु भविष्य के लिये अपने
अन्दर अंकुश भी लगा सकता है, जिससे वह आगे के जीवन को पूर्ण
पवित्रता युक्त जी सके, पूर्ण दिव्यता युक्त जी सके और जिससे उसे
फिर से कर्मो के पाश में बंधने की आवश्यकता नहीं पड़े।
साधनाः एकमात्र मार्ग
यह तरीका, यह मार्ग है साधना का, क्योंकि साधना का अर्थ ही है कि
अनिश्चत स्थितियों पर पूर्णतः विजय प्राप्त कर अपने जीवन को पूरी
तरह साध लेना, इस पर पूरी तरह से अपना नियन्त्रण कायम कर लेना।
यदि यह साधना तंत्र मार्ग के अनुसार हो तो इससे श्रेष्ठ तो कुछ हो
ही नहीं सकता, इससे उपयुक्त स्थिति तो और कोई हो ही नहीं सकती,
क्योंकि स्वयं शिव ने महानिर्वाण तंत्र में पार्वती को तंत्र की
विशेषता के बारे में समझाते हुये बताया है-
कल्किल्मष दीनानां द्विजातीनां सुरेश्वरि। मेध्या मेध्य विचाराणां
न शुद्धिः श्रौतकर्मणा।।
न संहिताद्यैः स्मृतिभिरष्टसिद्धिर्नृणां भवेत्। सत्यं सत्यं पुनः
सत्यं सत्यं सत्यं मयोच्यते।।
विनाह्यागम मार्गेण कलौ नास्ति गतिः प्रिये। श्रुतिस्मृतिपुराणादि
मयैवोक्तं पुरा शिवे।।
आगमोक्त विधानेन कलौ देवान्यजेत्सुधीः।।
हे देवी! कलि दोष के कारण ब्राह्मण या दूसरे लोग, जो पाप-पुण्य का
विचार करते हैं, वे वैदिक पूजन की विधियों से पापहीन नहीं हो
सकते। मैं बार बार सत्य कहता हूँ कि संहिता और स्मृतियों से उनकी
आकांक्षा पूर्ण नहीं हो सकती। कलियुग में तंत्र मार्ग ही एकमात्र
विकल्प है। यह सही है कि वेद, पुराण, स्मृति आदि भी विश्व को किसी
समय मैंने ही प्रदान किया था, परन्तु कलियुग में बुद्धिमान
व्यक्ति तंत्र द्वारा ही साधना कर इच्छित लाभ पायेगा।
इससे स्पष्ट होता है कि तंत्र साधना द्वारा व्यक्ति अपने पाप
पूर्ण कर्मों को नष्ट कर, भविष्य के लिये उनसे बंधन रहित हो सकते
हैं।
वैसे भी व्यक्ति यदि पूर्ण दरिद्रता युक्त जीवन जी रहा है या यदि
वह किसी घातक बीमारी की चपेट में है, जो कि समाप्त होने का नाम ही
नहीं ले रही हो, तो यह समझ लेना चाहिये कि उसके पाप आगे आ रहे
हैं—
नीचे में कुछ स्थितियाँ स्पष्ट की गई है जो कि व्यक्ति के पूर्व
पापों के कारण जीवन में प्रवेश करती हैं-
1. घर में बार-बार कोई दुर्घटना होना, आग लगना, चोरी होना आदि।
2. पुत्र या संतान का न होना या होने पर तुरन्त मर जाना।
3. घर के सदस्यों की अकाल मृत्यु होना।
4. जो भी योजना बनायें, उसमें हमेशा नुकसान होना, व्यापार या
कार्य में निरन्तर घाटा ही घाटा होना।
5. हमेशा शत्रुओं का भय होना।
6. विवाह में अत्यन्त विलम्ब या घर में कलह पूर्ण वातावरण, तनाव
आदि।
7. हमेशा पैसे की तंगी होना, दरिद्रतापूर्ण जीवन, बीमारी और
अदालती मुकदमों में पैसा पानी की तरह बहना।
ये कुछ स्थितियाँ हैं, जिनमें व्यक्ति जी-जान से कोशिश करने के
उपरान्त भी यदि उन पर नियंत्रण नहीं प्राप्त कर पाता तो समझ लेना
चाहिये कि यह पूर्व कर्मों के दोष के कारण ही घटित हो रहा है।
इसके लिये फिर उन्हें साधना का मार्ग अपनाना ही चाहिये, जिसके
द्वारा उसके समस्त दोष नष्ट हो सकें और वह जीवन में सभी प्रकार से
वैभव, शांति और श्रेष्ठता प्राप्त कर सके।
पापांकुशा साधना
ऐसी ही एक साधना है पापांकुशा साधना जिसके द्वारा व्यक्ति अपने
जीवन में व्याप्त सभी प्रकार के दोषों को-चाहे वह दरिद्रता हो,
अकाल मृत्यु हो, बीमारी हो या चाहे और कुछ हो, उसे पूर्णतः समाप्त
कर सकता है और अब तक के संचित पाप कर्मों को पूर्णतः नष्ट करता
हुआ भविष्य के लिये भी उनके पाश से मुक्त हो जाता है, उन पर अंकुश
लगा पाता है।
इस साधना को सम्पन्न करने से व्यक्ति के जीवन में यदि ऊपर बताई गई
स्थितियां होती है तो वे स्वतः ही समाप्त हो जाती है। वह फिर
दिनों-दिन उन्नति की ओर अग्रसर होने लग जाता है, इच्छित क्षेत्र
में पूर्ण सफलता प्राप्त करता है और फिर कभी भी किसी भी प्रकार की
बाधा का सामना उसे अपने जीवन में नहीं करना पड़ता।
यह साधना अत्यधिक उच्चकोटि की है और बहुत ही तीक्ष्ण है। चूंकि यह
तंत्र साधना है, अतः इसका प्रभाव शीघ्र देखने को मिलता है। यह
साधना स्वयं ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्त होने के लिये एवं
जनमानस में आदर्श स्थापित करने के लिए कालभैरव ने भी सम्पन्न की
थी— इसी से इस साधना की दिव्यता और तेजस्विता का अनुमान हो जाता
है—
यह साधना तीन दिवसीय है। इसे पापाकुंशा एकादशी से या किसी भी
एकादशी से प्रारम्भ करना चाहिये। इसके लिये पाप-दोष निवारण यंत्र
तथा हकीक माला की आवश्यकता होती है।
सर्वप्रथम साधक को ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर स्नान आदि से निवृत्त
होकर, सफेद धोती धारण कर, पूर्व दिशा की ओर मुँह कर बैठना चाहिये
और अपने सामने श्वेत वस्त्र से ढके बाजोट पर समस्त पाप दोष निवारण
यंत्र स्थापित कर उसका पंचोपचार पूजन सम्पन्न करना चाहिये। मैं
अपने सभी पाप-दोष समर्पित करता हूँ, कृपया मुझे मुक्ति दें और
जीवन में सुख, लाभ, सन्तुष्टि, प्रसन्नता आदि प्रदान करें-ऐसा
कहने के साथ यदि अन्य कोई इच्छा विशेष हो तो उसका भी उच्चारण कर
देना चाहिये। फिर हकीक माला से निम्न मंत्र का 11 माला मंत्र जप
करना चाहिये।
मंत्र
।। ॐ क्लीं ऐं पापानि शमय नाशय ॐ फट् ।।
OM KLEEM AYEIM PAPANI SHAMAY NASHAY OM PHAT
यह मंत्र अत्यधिक चैतन्य है और साधना काल में ही साधक को अपने
शरीर का ताप बदला मालूम होगा। परन्तु भयभीत न हों, क्योंकि यह तो
शरीर में उत्पन्न दिव्याग्नि है, जिसके द्वारा पाप राशि भस्मीभूत
हो रही है। साधना समाप्ति के पश्चात् साधक को ऐसा प्रतीत होगा कि
उसका सारा शरीर किसी बहुत बड़ी बोझ से मुक्त हो गया है, स्वयं को
वह पूर्ण प्रसन्न एवं आनन्दित महसूस करेगा और उसका शरीर फूल की
भांति हल्का महसूस होगा।
जो साधक अध्यात्म के पथ पर आगे बढ़ना चाहते हैं, उन्हें तो यह
साधना अवश्य ही सम्पन्न करनी चाहिये, क्योंकि जब तक पाप कर्मों का
क्षय नहीं हो जाता, व्यक्ति की कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो ही नहीं
सकती और न ही वह समाधि अवस्था को प्राप्त कर सकता है।
साधना के उपरांत यंत्र तथा माला को किसी जलाशय में अर्पित कर देना
चाहिये। ऐसा करने से साधना फलीभूत होती है और व्यक्ति समस्त दोषों
से मुक्त होता हुआ पूर्ण सफलता अर्जित कर भौतिक एवं आध्यात्मिक
दोनों मार्गों में श्रेष्ठता प्राप्त करता है।